लिंग आधारित हिंसा (जीबीवी) की व्यापकता खतरनाक रूप से चिंताजनक और सर्वव्यापी है; वैश्विक स्तर पर. हर तीन में से एक महिला ने अपने जीवन में किसी न किसी तरह की हिंसा का सामना किया है (डेवरीज और अन्य 2013), साथ ही शिकायत नहीं दर्ज कराने के कारण जीबीवी के ज्यादातर मामले सामने नहीं आ पाते; पाया गया है कि लैंगिक हिंसा का सामना करने वाली सिर्फ 7% महिलाओं ने पुलिस, स्वास्थ्य विभाग, सामाजिक सेवाएं जैसी औपचारिक संस्थाओं से शिकायत की है (पलेरमो और अन्य 2013)। हिंसा के मामलों की इतनी कम मात्रा में शिकायत हानिकारक हो सकती है, यह न केवल जीबीवी के वास्तविक परिमाण या स्थिति के बारे में हमारी समझ को सीमित करता है बल्कि यह अपराध के प्रतिरोध को भी कमजोर करता है जिससे इस तरह के अपराध जारी रहते हैं।
इन मामलों की शिकायत करने के प्रति पीड़िता की इच्छा कई सामाजिक तथा
संरचनात्मक अवरोधों से प्रभावित होती है। इनमें सामाजित कलंक और शर्म, संस्थाओं के प्रति विश्वास में कमी, उत्पीड़क द्रारा बदला लेने का भय, जागरूकता की कमी, निर्दिष्ट सेवाओं तक पहुंच की कमी और कई सांस्कृतिक परिवेशों में हिंसा के प्रति उच्च सहनशीलता जैसे कारण शामिल हैं (गार्सिया-मोरेनो और अन्य)। एक हाल ही में किए गए अनुसंधान में मैंने इसकी छान – बीन की कि जन सक्रियता और जीवीबी पर अधिक विमर्श से इन अवरोधों से पार पाया जा सकता है और हिंसा के मामलों की शिकायतों में बढ़ोतरी की जा सकती है। मैंने भारतीय संदर्भों में इन सवालों की पड़ताल की और इसके सकारात्मक/स्वीकारात्मक प्रमाण भी पाए।
शोध का विन्यास और रूपरेखा: दिल्ली में जघन्य सामूहिक बलात्कार कांड के विरोध प्रदर्शन
मैंने विशेष रूप से यह अध्ययन दिसंबर 2012 में दिल्ली में चलती बस में हुए क्रूर सामूहिक बलात्कार कांड की पृष्ठभूमि में किया (इसे यहां से घटना के रूप में ही उल्लेखित किया जाएगा)। यह घटना विशेष रूप से जघन्य थी, इसकी व्यापक रूप से निंदा हुई और इसे जीबीवी पर एक व्यापक सामाजिक आंदोलन का प्रारंभ बिंदु माना जा सकता है, इन प्रदर्शनों को " भारतीय बसंत" की संज्ञा दी गई। पीड़िता को न्याय और इससे भी अधिक जीबीवी को किस तरह से देखा जाता है और इससे निपटने के लिए संरचनागत बदलावों की मांग को लेकर पूरे देश में अप्रत्याशित स्तर पर प्रदर्शन शुरू हो गए। जनाक्रोश के उभार ने कई विधिक व पुलिस सुधारों का मार्ग प्रशस्त किया-जिसकी सिफारिश भारत सरकार द्वारा गठित एक समिति ने की थी। इस प्रस्ताव में बलात्कार के खिलाफ सजा को सख्त करने, जीबीवी से जु़ड़े अन्य मामलों - जैसे पीछा करने और ताकझांक या घूरने, और जीबीवी मामलों की सुनवाई के लिए त्वरित अदालतों का गठन, रात्रिकालीन गश्त में बढ़ोतरी, सार्वजनिक स्थानों पर पुलिस की चौकसी बढ़ाने, सार्वजनिक बसों में जीपीएस उपकरण लगाना, रात में चलने वाली बसों में होमगार्डों की तैनाती जैसे कई उपायों की सिफारिश की गई।
इस अध्ययन में, मैं इस घटना और इससे जुड़े प्रदर्शनों और इसके जीबीवी से जुड़े मामलों की शिकायतों जैसे बलात्कार, यौन हिंसा, महिलाओं का अपहरण, महिलाओं की गरिमा का हनन, घरेलू हिंसा, और दहेज हत्या (जैसे पति या ससुराल जनों द्वारा और दहेज की मांग को लेकर युवा महिला की हत्या या लगातार उत्पीड़न से उसे आत्महत्या के लिए मजबूर करने) जैसे मामलों पर इसके प्रभाव का मूल्यांकन करूंगी। इस घटना के असर की पहचान के लिए मैं उन जिलों जो इस घटना और उसके असर से ज्यादा प्रभावित हुए और वे जिले जो कम प्रभावित हुए, के बीच तुलनात्मक अध्ययन करूंगी।
तो हम, इसके असर को कैसे परिभाषित करेंगे, कैसे इसका आकलन करेंगे? इस विश्लेषण में अनावरण की संकल्पना घटना को सामाजिक-आर्थिक सामीप्य या लोगों की संबद्धता के रूप में की गई है। अनिवार्य रूप से, विचार-अनुभव (विचारानुभव) संवेदना या सहानुभूति में निहित है; जब लोग घटना के साथ खुद तादाम्य स्थापित कर लेते हैं या घटना से जुड़े लोगों के साथ स्वयं को जोड़ लेते हैं तो उनके इससे ज्यादा प्रभावित होने की संभावना बढ़ जाती है।
अनावरण के मापन में विभिन्न जिलों के उन तमाम विशिष्ट संकेतकों और आंकड़ों जो 2011 की जनणना के समय आधार-रेखा के रूप में दर्ज किए गए थे, का उपयोग किया गया है। अनावरण के मापन में मुख्य रूप से तीन चीजों को संपुटित किया गया है: (I) मीडिया कवरेज (घटना के बारे में सूचनाओं तक पहुंच और इससे जुड़े प्रदर्शन का आकलन), (II)जनसांख्यिकीय कारक (जो पीड़िता और उसके परिवार के साथ समरूपता/संयुक्तता का आकलन करती है), और (III) सार्वजनिक परिवहन की कवरेज (जो घटना की जगह और परिस्थितियों के साथ संबद्धता का आंकलन करती है)।
मुख्य निष्कर्ष: जीबीवी के मामलों की शिकायत में सहसा तीव्र वृद्धि
मैंने पाया कि ज्यादा प्रभावित होने वाले जिलों में घटना के बाद जीबीवी शिकायतों में तेजी से वृद्धि हुई बनिस्बत उन जिलों के जो इससे ज्यादा प्रभावित नहीं हुए थे ( जिन्हें नीचे दिए गए आंकड़ों में दर्शाया गया है और जहां 2013 के बाद सकारात्मक और आंकड़ों की दृष्टि से महत्वपूर्ण आकलन देखने को मिले हैं)। मैंने यह भी पाया कि घटना से पहले इससे ज्यादा प्रभावित और कम प्रभावित जिलों में जीबीवी के मामलों की शिकायत के रुझान में कोई व्यवस्थित अंतर देखने को नहीं मिला (ध्यान दें कि जिन बिंदुओं का आकलन है उनमें 2012 से पहले आंकड़ों की दृष्टि से शून्य का अंतर है); इस प्रकार, तादात्म्य रणनीति की विश्वनीयता को बल मिलता है।
Note: Each point estimate in the figure reports the difference in reported rate of GBV between districts with high and low exposure. The primary outcome is reported rate of GBV, which is defined as the number of reported cases of GBV per 100,000 female population.
आगे मुझे लैंगिक रूप से तटस्थ अपराधों जैसे हत्या लूट और दंगा जैसे मामलों की शिकायत में कोई विशेष बदलाव देखने को नहीं मिला जो इस बात का संकेत कि अनुमानित असर या अन्य बदलावों का कारण पूरी तरह से अपराध के माहौल की आबोहवा जैसे पुलिस या पुलिसिया सख्ती को नहीं माना जा सकता। जीबीवी मामलों की शिकायत में 27% की बढ़ोतरी देखने को मिली जिसमें सबसे ज्यादा महिलाओं के अपहरण (52%) के मामले थे। इसके बाद घरेलू हिंसा (32%) और यौन हिंसा (27%) के मामले थे। इन निष्कर्षों को यदि परिप्रेक्ष्य में देखें तो महिला थानों की स्थापना (अमारल और अन्य 2018) के बाद जीबीवी के मामलों की शिकायत में 22% की औसत अनुमानित बढ़ोतरी हई जो राजनीतिक नेतृत्व में महिलाओं की भागीदारी (अय्यर और अन्य 2012) बढ़ने के साथ बढ़कर 42% हो गई।
तंत्र/प्रक्रियाएं: शिकायतों में बढ़ोतरी की ओर संकेत करने वाले प्रमाण
सरसरी नजर से देखें तो ये निष्कर्ष कुछ हद तक चकित करने वाले हैं; हिंसा रोकने के लिए तमाम उपायों के बावजूद जीबीवी शिकायतों में बढ़ोतरी क्यों हुई? मैं अतिरिक्त सबूत दे रही हूं जो इशारा करते हैं कि अनुमानित असर के लिए अपराध की शिकायतों में बढ़ोतरी जिम्मेदार है न कि अपराध में बढ़ोतरी। इसकी औपचारिक जांच के लिए मैंने दिल्ली पुलिस द्वारा प्रकाशित तीन लाख आपराधिक मामलों का अध्ययन कर एक उच्च आवृत्ति वाला घटना-स्तरीय आंकड़ा समुच्चय तैयार किया। आंकड़ों का यह समुच्चय अपने स्वरूप में काफी उर्वर और प्रचुर था और इससे मुझे शिकायतों में देरी या परहेज (रिपोर्टिंग लैग) या शिकायतों के प्रति पूर्वाग्रह को समझने के लिए एक खाका बनाने में मदद मिली। रिपोर्टिंग लैग में अपराध की तारीख और फिर कितने दिन बाद इसकी शिकायत दर्ज हुई, को मापा जाता है। आंकड़े बताते हैं कि जीबीवी के मामलों में औसतन 370 दिन बाद शिकायत दर्ज कराई गई! लेकिन 2012 के सामूहिक बलात्कार कांड के बाद मुझे रिपोर्टिंग लैग यानी घटना होने और शिकायत दर्ज कराने के समय में अच्छी खासी गिरावट देखने को मिली। घटना के बाद शिकायत दर्ज कराने में देरी में 15% की कमी आई और अंतराल के परिमाण (दिनों की संख्या के संदर्भ में) 35% की गिरावट देखने को मिली। ये निष्कर्ष इस बात की ओर संकेत करते हैं कि जीबीवी के खिलाफ बढ़ी जन सक्रियता के कारण हिंसक अनुभवों से गुजरने वाली महिलाओं को इसे उजागर करने और इसकी शिकायत करने का साहस मिला- यह असर वैश्विक #मी टू आंदोलन के प्रभावों जैसा ही था। तथापि, मैं इन नतीजों की वैकल्पिक व्याख्याओं की भी छानबीन करूंगी- जैसे फर्जी शिकायतें, पुलिस द्वारा शिकायत दर्ज करने में बढ़ोतरी- और पाया कि उपर उल्लिखित तंत्र के समर्थन में कई प्रमुख साक्ष्य हैं जैसे पीड़ितों द्वारा शिकायतें दर्ज कराने में बढ़ोतरी।
शोध व नीतियों के लिए निहितार्थ
इस शोध से साबित होता है कि जन सक्रियता और व्यापक विमर्श से जीबीवी मामलों की शिकायतें दर्ज कराने में बढ़ोतरी हो सकती है। यह इस बात का भी संकेत है कि सामाजिक आंदोलन जागरूकता के प्रसार और इसके साथ यौन हिंसा से जुड़े मामलों को सार्वजनिक कर जीबीवी मामलों से जुड़े सामाजिक कलंक से पार पाने में भी काफी प्रभावी हो सकते हैं। इस तरह का "उर्ध्वगामी दृष्टिकोण" वर्तमान वैश्विक संदर्भों में विशेष रूप से प्रासंगिक है जहां मीटू, नी यूना मेनोस और ब्लेक लाइव्, मैटर जैसे आंदोलन काफी प्रसिद्ध हो चुके हैं और नीतिगत विमर्शों की रूपरेखा तय करने में भी अहम योगदान कर रहे हैं। दूसरे, ये निष्कर्ष सांस्थानिक सुधारों के अलावा हस्तक्षेप के एक और वर्ग की ओर इशारा करते हैं जैसे समुदाय आधारित कार्यक्रम- जिसका लाभ अपराध की शिकायत दर्ज कराने की पीड़िता में सन्निहित इच्छा को प्रभावित करने और विमर्श के मानकों की सुई बदलने में किया जा सकता है।
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