क्या भारत को ग्रीन बैंक की आवश्यकता है?

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क्या भारत को ग्रीन बैंक की आवश्यकता है?

भारत को अपने नेट शून्य उत्सर्जन लक्ष्य को वर्ष 2070 तक पूरा करने के लिए कितनी पूंजी की आवश्यकता होगी? यह 170 बिलियन अमरीकी डॉलर का सवाल है। 

आज, जलवायु नीति पर बढ़ती गति के बावजूद, भारत के हरित परिवर्तन के लिए पूंजी का प्रवाह देश की बड़ी आवश्यकताओं से बहुत कम है - अर्थात 70 प्रतिशत कम है।

क्या एक समर्पित सरकारी ग्रीन बैंक इसका उत्तर हो सकता है? यदि आप इससे परिचित हैं, तो जान लीजिए कि दुनिया भर की सरकारें लंबे समय से उधार बाज़ार की विफलताओं को सुधारने के लिए सरकारी वित्तीय संस्थाओं  की ओर रुख करती रही हैं।

भारत में अल्प सेवा वाले क्षेत्रों की ओर पूंजी निर्देशित करने के लिए राज्य समर्थित ऋणदाताओं के सृजन की परंपरा रही है। उदाहरण के लिए, राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) की ही बात करतें है।  इसकी स्थापना 1982 में स्थायी कृषि और ग्रामीण विकास के लिए चोटी के विकास बैंक के रूप में की गई थी।  भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक (सिडबी) का भी उदाहरण लिया  जा सकता है जिसकी स्थापना 1990 में सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (एमएसएमई) के विकास के लिए प्रमुख वित्तीय संस्थान के रूप में की गई थी।

हाल ही वर्ष 2021 में , भारत ने अपने बुनियादी ढांचे के वित्तपोषण की चुनौतियों से निपटने के लिए राष्ट्रीय वित्त अवसंरना एवं विकास बैंक - नेशनल बैंक फॉर फाइनेंसिंग इंफ्रास्ट्रक्चर एंड डेवलपमेंट (NaBFID) - बनाया। यह अनुभव एक सुव्यवस्थित विकास वित्त संस्थान, जिसका परिभाषित उद्देश्य जलवायु वित्त हो, डिजाइन करने के लिए पाठ प्रदान करता है।

ऐसा कहा जाता है कि सरकारी वित्तीय संस्थाओं की भागीदारी भी जटिलताओं से परे नहीं है। भारत सहित दुनिया भर में जब पुनर्पूंजीकरण होता है, तो इसके राजनीतिक पहलु होते हैं और वित्तीय रूप से बोझिल होता है। इसका एक कारण यह है कि सरकारी ऋणदाता अक्सर नीति-संचालित आदेशों के अनुसार काम करते हैं और  उच्च ऋण जोखिम और कम मार्जिन के कारण मंदी के दौरान उनकी बैलेंस शीट कमजोर हो जाती है।

बारीकी से देखें, तो उनकी मौजूदगी निजी निवेश को खराब कर सकती है, खासकर ऐसी स्थिति में जब इन जनादेशों के कारण बाजारों में पूर्ति और प्रतिस्पर्धा के बीच की रेखा धुंधली हो जाती है। लेकिन ऐसे नुकसान केवल सरकारी क्षेत्र तक ही सीमित नहीं होते हैं। ऐसे उदाहरणों की कोई कमी नहीं है जहाँ महत्वपूर्ण निजी बैंकों ने जोखिम (रिस्क) का गलत मूल्यांकन किया है, अपनी बैलेंस शीटों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया है और अंततः सरकारी हस्तक्षेप पर निर्भर रहे हैं।

एक सफल वित्तीय संस्थान की स्थापना के लिए क्या आवश्यक है?

भारत तथा अन्य देशों में सफल सरकारी वित्तीय संस्थाएं दो स्तंभों पर टिकी होती हैं।

पहला स्तंभ शासन व्यवस्था है। इसमें विविध विशेषज्ञता वाले स्वतंत्र, सक्षम सदस्यों का बोर्ड में शामिल होना है। बोर्ड और सञ्चालन, दोनों स्तरों पर शीर्ष प्रतिभाओं को आकर्षित करने के लिए बाजार आधारित मेहनताना देने की आवश्यकता होगी, भले ही वो राजनीतिक रूप से संवेदनशील क्यों न हो। इसके लिए स्पष्ट परिचालन स्वतंत्रता के साथ एक सशक्त, साधन संपन्न जोखिम प्रबंधन कार्य की भी आवश्यकता होगी ।

दूसरा स्तंभ जनादेश है। संस्था की भूमिका स्पष्ट रूप से शमन और अनुकूलन दोनों के लिए बाजार बनाने में होगी और निजी वित्त को बढ़ाने में होगी न की उसकी जगह लेने के लिए होनी चाहिए।  अधिक स्पष्ट रूप से कहें तो संस्था को खुद को ग्रीन स्टार्ट-अप के इनक्यूबेटर, उभरते ग्रीन बिजनेस मॉडल के लिए एक प्रयोगशाला और अभिनव मिश्रित वित्त समाधानों के अन्वेषक के रूप में स्थापित करना चाहिए।

बोर्ड को नियमित रूप से यह आंकलन करना होगा कि क्या परिपक्व होते बाजार को निजी कार्यकर्ताओं को सौंप देना चाहिए, जिससे संस्था को अगले मोर्चे पर आगे बढ़ने का मौका मिल सके। चूंकि अन्य वित्तीय संस्थाएं-जैसे कि सिडबी, नाबार्ड, एनएबीएफआईडी और राष्ट्रीय आवास बैंक (एनएचबी)-तेजी से हरित वित्त में शामिल हो रही हैं, इसलिए जनादेश में यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि नए ग्रीन बैंक की भूमिका इन संस्थाओं के साथ प्रतिस्पर्धा करने की नहीं, बल्कि उन्हें पूरक बनाने की है।

पूंजी को अपेक्षित गति और स्तर पर प्रवाहित करने के लिए आवश्यक अन्य साधन

लेकिन क्या यह पर्याप्त होगा? शायद नहीं।  भारत के हरित वित्तपोषण के अंतराल का स्तर और जटिलता यह बताते हैं कि जब तक संस्था को 40-50 बिलियन डॉलर की पूंजी नहीं दी जाती - जो हर साल आवश्यक 120 बिलियन डॉलर के ऋण प्रवाह को बनाए रखने के लिए पर्याप्त है - तब तक भारत को आगे बढ़ने में संघर्ष करना पड़ेगा। इसलिए, सरकार को आवश्यक गति और स्तर पर पूंजी प्रदान करने के लिए अन्य साधनों को सक्रिय करने की आवश्यकता होगी। उपलब्ध नीतिगत साधनों की श्रेणी में,  बड़े स्तर पर सार्थक परिवर्तन लाने की अपनी क्षमता के लिए चार साधन विशेष टिपण्णी के लायक हैं। 

पहला, घरेलू पूंजी बाज़ारों को गतिशील बनाना। भारतीय पूंजी बाजार प्राधिकरण - सिक्योरिटीज एंड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ़ इंडिया (सेबी) - द्वारा जारी ग्रीन बॉन्ड ढांचा एक सराहनीय कदम था। लेकिन संस्थागत निवेशकों की प्रबल भागीदारी अभी भी सपना बनी हुई है। विश्व बैंक ने हाल ही में एक पैनल चर्चा में, "ग्रीन प्राथमिकता क्षेत्र" ढांचे का विचार पेश किया जो संस्थागत निवेशकों के लिए तैयार किया जा सकता है।  यह प्राथमिकता क्षेत्र ऋण (पीएसएल) दायित्वों के समान है जो बैंक ऋण के लिए मार्गदर्शन के रूप में इस्तेमाल करते हैं। क्या पेंशन और बीमा निधि, जिसमें प्रबंधन के तहत परिसंपत्ति (लगभग 480 बिलियन डॉलर) है, उसमें धीरे-धीरे हरित बांड का न्यूनतम आवंटन शामिल करने के लिए प्रेरित किया जा सकता है?  निश्चित रूप से, इस तरह के बदलाव के लिए आपूर्ति पक्ष पर इसी तरह के प्रयास की आवश्यकता होगी। कई संभावित जारीकर्ता अभी भी ए ए क्रेडिट रेटिंग तक पहुंचने के लिए संघर्ष करते हैं, जिसकी संस्थागत निवेशक आमतौर पर भारत में मांग करते हैं। यहां, लक्षित ऋण वृद्धि तंत्र - भविष्य की ग्रीन सरकारी संस्था द्वारा क्यों नहीं प्रदान किया जाता? - जो एक उत्प्रेरक भूमिका निभा सकता है।

दूसरा तरीका (जिसपर खोज की जा सकती है) है भारत की मौजूदा आंशिक ऋण गारंटी योजनाओं का विस्तार करना और उन्हें  हरित बनाना। विशेषकर एमएसएमई के लिए, वर्तमान में, सक्रिय गारंटी योजनाएं सकल घरेलू उत्पाद का केवल 1.4 प्रतिशत हैं। अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार, यह भारत के संभावित स्तर का केवल आधा है। गारंटी के अधिकाधिक उपयोग से हरित परियोजनाओं के लिए निजी ऋण जोखिम कम हो सकता है और पिरामिड के निचले स्तर पर पूंजी प्रवाह हो सकता है।

तीसरा कदम देश के बड़े विकास वित्त संस्थानों को पुनः दिशा देने में निहित है—नाबार्ड, सिडबी, एनएबीएफआईडी और एनएचबी—अपने जनादेशों के एक हिस्से को मापनीय हरित प्रमुख प्रदर्शन संकेतकों (केपीआई) से जोड़ सकते हैं। ऐसे केपीआई उन्हें निजी बैंकों और गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) के भीड़ के बीच हरित ऋण बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं।

सुधार के लिए अंतिम और अक्सर अनदेखा किया जाने वाला क्षेत्र कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (सीएसआर) को नियंत्रित करने वाला कानूनी ढांचा है। यद्यपि इसका उद्देश्य सार्वजनिक भलाई है, फिर भी सीएसआर के अंतर्गत खर्च  नियमों से पूर्णतः बंधा हुआ है जो मिश्रित वित्त साधनों में वाणिज्यिक पूंजी के साथ इसके उपयोग को रोकता है। यह ऐसे समय में नवाचार को सीमित करता है जब भारत को हरित निवेशों को जोखिम मुक्त करने के लिए उत्प्रेरक निधि की तत्काल आवश्यकता है। हरित मिश्रित वित्त के लिए सीएसआर निधि को मुक्त करने के लिए न केवल विनियामक सुधार की आवश्यकता होगी, बल्कि मानसिकता में बदलाव की भी आवश्यकता होगी - जिसमें कॉर्पोरेट को केवल दाताओं के रूप में ही नहीं बल्कि सतत विकास के भागीदार के रूप में देखा जाना होगा ।

अंततः, भारत का हरित क्रांति किसी एक साधन पर निर्भर नहीं रह सकती। जलवायु वित्त की कमी को पाटने के लिए भारत सरकार को संस्थागत और विनियामक दोनों रणनीतियों को समानांतर रूप से सक्रिय करने की आवश्यकता होगी। एक समर्पित ग्रीन बैंक, यदि अच्छी तरह से संचालित है और उसके पास पर्याप्त पूंजी है, तो यह बाजारों को विकसित करने और प्रारंभिक चरण के निवेशों को जोखिम मुक्त करने में उत्प्रेरक की भूमिका निभा सकता है। लेकिन इसका प्रभाव तभी बढ़ेगा जब इसे साहसिक विनियामक उपायों (जैसे कि हरित पूंजी आवंटन जनादेश, विस्तारित गारंटी योजनाओं और सीएसआर नियमों में सुधार) के साथ जोड़ा जाएगा जिससे वित्तीय प्रणाली में प्रोत्साहन स्थानांतरित होते हैं।  इन साधनों की परस्पर क्रिया से न कि कोई एक हस्तक्षेप से,  भारत की बड़े पैमाने पर, गति और परिष्कृत स्तर पर पूंजी जुटाने की क्षमता निर्धारित होगी जो हरित क्रांति की मांग है।


लोरौं गोने

अग्रणी वित्तीय क्षेत्र विशेषज्ञ, वित्त, प्रतिस्पर्धात्मकता और नवाचार वैश्विक अभ्यास

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