समीना भारत के उत्तर-पूर्वी राज्य मणिपुर में रहती हैं, और 2017 से ही एक सामुदायिक कार्यकर्ता के रूप में काम कर रही हैं। अपने काम के चलते उन्हें राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों और दूरदराज के इलाकों में जाना पड़ता है ताकि वह स्कूली शिक्षा से बेदखल अल्पसंख्यक युवाओं को भारत सरकार के नई मंज़िल कार्यक्रम (औपचारिक शिक्षा से बाहर युवाओं के लिए शिक्षा और कौशल प्रशिक्षण) के साथ जोड़ सकें। एक कार्यकर्ता के रूप में उनका मुख्य काम ये है कि वह इस कार्यक्रम के लिए उपयुक्त लाभार्थियों की पहचान करें और उन्हें इसकी उपयोगिता के बारे में समझाएं और उन्हें इस कार्यक्रम के साथ जोड़ने का प्रयास करें।
उत्तर पश्चिमी राज्य पंजाब में, दिनेश नवजोत और वंदना सिख समुदाय के उन युवाओं को नई मंज़िल कार्यक्रम से जोड़ने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं, जिनकी पढ़ाई बीच में ही छूट गई थी। वे दोनों उनके घर जाते हैं, उनसे बात करते हैं और उनके परिवारों से नई मंज़िल कार्यक्रम से मिलने वाले लाभों की चर्चा करते हैं। और इस तरह से वे इस कार्यक्रम से जुड़ने के लिए उनके अभिवावकों को प्रेरित करते हैं। इतना ही नहीं, वे स्थानीय नेताओं का समर्थन जुटाने की कोशिशें भी करते हैं। यह इतना आसान नहीं था। "ऐसा कई बार हुआ जब कुछ परिवारों ने हमारी बात नहीं सुनी, और हमें भगा दिया। लेकिन हमने हार नहीं मानी। समय के साथ, वे हम पर भरोसा करने लगे और उन्हें इस योजना से जुड़े फ़ायदे नज़र आने लगे।"
नई मंज़िल ("न्यू होराइजंस") कार्यक्रम को भारत सरकार के अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय द्वारा चलाया जा रहा है, और विश्व बैंक ने इस कार्यक्रम को 5 करोड़ डॉलर की सहायता राशि प्रदान की है। इस योजना के तहत स्कूली शिक्षा से बाहर हो चुके युवाओं को औपचारिक शिक्षा और कौशल प्रशिक्षण का अवसर प्रदान किया जाता है।
नई मंज़िल कार्यक्रम का विस्तार भारत के 26 राज्यों और 3 केंद्र शासित प्रदेशों में है, और इसके कारण अब तक 98 हजार अल्पसंख्यक युवा इस योजना का लाभ उठा चुके हैं, क्योंकि यह आरकार्यक्रम उनकी शिक्षा से जुड़े परिणामों को प्रभावित करता ही है, साथ ही उन्हें मिलने वाले रोज़गार के अवसरों को भी।
सामुदायिक कार्यकर्ताओं की महत्ता
इस कार्यक्रम की रूपरेखा निर्माण के दौरान ये पाया गया कि इन अल्पसंख्यक युवाओं को परंपरागत संस्थानों के ज़रिए अवसर प्रदान करके इस कार्यक्रम से जुड़ने के लिए राजी करना काफ़ी नहीं होगा। बल्कि, सबसे पहले तो उस समुदाय के भरोसे को जीतना ज़रूरी था। यहीं सामुदायिक कार्यकर्ताओं की भूमिका बेहद महत्त्वपूर्ण हो जाती है। असम में, नई मंज़िल प्रशिक्षण केंद्र को मुस्लिम युवाओं को अपने कार्यक्रम के साथ जोड़ने के लिए काफ़ी संघर्ष करना पड़ा। लेकिन जब मुस्तफिसुल और हबीबुल्लाह जैसे सामुदायिक कार्यकर्ता सामने आए, तब जाकर इस स्थिति में बदलाव आया। ये दोनों युवा अपनी मोटरसाइकिलों पर सवार होकर घर-घर जाते थे और परिवारों से मिलकर सही अभ्यर्थियों की पहचान करते थे। उन्होंने खेलकूद के मैदानों और रिक्शा स्टैंड जैसे सार्वजनिक स्थलों के प्रयोग से ये पता लगाया कि वे कौन लोग हैं, जिनकी पढ़ाई बीच में ही छूट गई थी। वे दोनों उन लोगों से बात करके उन्हें नई मंज़िल कार्यक्रम के बारे में जानकारी देते थे, उनके साथ फुटबॉल खेलते थे और साथ में बैठकर चाय पानी पीते थे। इस तरह उनसे संपर्क स्थापित करने से युवाओं में भरोसा पैदा हुआ और उनके भीतर कार्यक्रम के प्रति उत्सुकता जागी।
सामुदायिक कार्यकर्ता के रूप में सही लोगों की पहचान करना बेहद महत्त्वपूर्ण है। सीखने की चाह, सकारात्मक दृष्टिकोण, स्थानीय भाषा का ज्ञान और समुदाय के साथ संबंध जैसे गुण सबसे ज्यादा ज़रूरी हैं। न्यूनतम स्तर की लेखन और पाठन क्षमता का होना भी काफ़ी ज़रूरी है ताकि सामुदायिक कार्यकर्ता लोगों को कार्यक्रम से जुड़ी जानकारियां दे सकें।
सीखने की चाह, सकारात्मक दृष्टिकोण, स्थानीय भाषा का ज्ञान और समुदाय के साथ संबंध जैसे गुण सबसे ज्यादा ज़रूरी हैं।
सामुदायिक कार्यकर्ताओं ने परिवारों की सोच और परंपराओं को बदलने में एक ख़ास भूमिका निभाई है। विशेष रूप से महिला छात्रों के मामले में ये कार्रवाई और भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाती है। असम में हबीबुल्लाह के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही थी कि वह कैसे रूढ़िवादी मुस्लिम परिवार की लड़कियों को कार्यक्रम के साथ जोड़ पाएंगे जबकि वे परिवार अपनी लड़कियों को पढ़ने के लिए घर से बाहर नहीं भेजना चाहते थे। इसके अलावा ऐसे परिवारों की मुख्य चिंता यही थी कि वे किसी तरह अपनी लड़कियों की शादियां करना चाहते थे। कभी-कभी वह उन लड़कियों के अभिवावकों को प्रशिक्षण केंद्र पर बुलाते थे ताकि वे लोग प्रशिक्षकों से बात करके कार्यक्रम के बारे में ठीक तरह से समझ सकें। उनका कहना है कि ऐसी मुलाकातें काफ़ी कारगर सिद्ध हुईं क्योंकि इसके कारण उनके मन में कार्यक्रम के प्रति भरोसा मजबूत हुआ। दिनेश बड़े गर्व के साथ उन महिला लाभार्थियों की कहानियां बताते हैं जो अब अपना पैसा स्वयं कमा रही हैं और कार्यक्रम की सहायता से नौकरियां पाकर अपने
अभिवावकों की मदद कर रही हैं। वास्तव में, उन्हें देखकर गांव के अन्य परिवार भी अपनी बेटियों को नई मंज़िल कार्यक्रम के साथ पंजीकृत कराने के लिए प्रेरित हुए हैं। वह बताते हैं, "नई मंज़िल के कारण लड़कियां भी अपनी जिंदगियों में आगे बढ़ पा रही हैं।"
नई मंज़िल की इस कामयाबी के पीछे 300 से भी ज्यादा सामुदायिक कार्यकर्ताओं की कड़ी मेहनत है। इनमें से कई सामुदायिक कार्यकर्ता ऐसे हैं जो लोगों को महज़ कार्यक्रम से जोड़ने में ही मदद नहीं कर रहे, बल्कि उससे आगे बढ़कर उन छात्रों और अभिभावकों को परामर्श देने का काम भी कर रहे हैं। इतना ही नहीं, प्रशिक्षण के दौरान या रोजगार के शुरुआती चरणों में कठिनाइयों का सामना करने पर वे लोग लाभार्थियों की मदद भी कर रहे हैं। इन कार्यकर्ताओं ने उन लाभार्थियों की भी सहायता की है, जिनकी महामारी के दौरान नौकरियां छीन गई हैं। वैकल्पिक अवसरों को ढूंढ़ने में उन्होंने उनकी काफ़ी मदद की है।
मुस्तफिसुल का कहना है कि जब वे अपने समुदाय को उन पर भरोसा करते हुए और अपनी मां को उनके काम पर गर्व महसूस करते हुए देखते हैं तो उन्हें लगता है कि "उनके सारे सपने पूरे हो गए!"
समीना इस कार्यक्रम की सफ़लता के बारे में कहती हैं, "नई मंज़िल कार्यक्रम के कारण अल्पसंख्यक युवाओं की सोच में काफ़ी बदलाव आया है। कई साथी अब कॉलेज में पढ़ रही हैं। कुछ दिल्ली में नर्सिंग की पढ़ाई कर रही हैं, तो कुछ प्रबंधन का प्रशिक्षण ले रही हैं। कुछ महिलाओं ने तो सिलाई कढ़ाई का अपना व्यापार करना शुरू कर दिया है। मेरे पास शब्द ही नहीं हैं! मैं बता नहीं सकती कि किस तरह से लोग आज मेरी कितनी तारीफ़ करते हैं।"
*भारत सरकार मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध, जैन और पारसी समुदाय को अल्पसंख्यक के रूप में वर्गीकृत करती है।
यह नई मंज़िल कार्यक्रम की श्रृंखला का तीसरा और आखिरी ब्लॉग है। इस विषय पर लिखे हुए पहले लेख को यहां पढ़ा जा सकता है। शारीरिक अक्षमता से जूझ रहे अल्पसंख्यक युवाओं के सामने अवसरों की उपलब्धता पर लिखे गए दूसरे लेख को यहां पढ़ें।
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