कोविड-19 महामारी ने यह दर्शाया कि सार्वजनिक निवेश कैसे निजी क्षेत्र में वैक्सीन, परीक्षण किट, दवाओं और चिकित्सा विधि के विकास को तीव्र कर सकता है और व्यक्तिगत बचाव उपकरणों को कैसे व्यापक रूप से उपलब्ध करा सकता है।
परंपरागत रूप से, इन नवाचारों में अधिकांश पश्चिमी देशों में हुए हैं। उदाहरण के लिए, मॉडर्ना वैक्सीन अमेरिकी सरकार द्वारा समर्थित थी और बायोनटेक/ फयजेर जर्मनी और ईयू द्वारा समर्थित थी।
चूंकि समृद्ध देश अपनी विशाल पूंजी और उच्च कौशल से लैस श्रम को समृद्ध देशों की बीमारियों के लिए वैक्सीन एवं दवाएं विकसित करने पर केंद्रित करते हैं, जिससे उनके नवाचार विकासशील दुनिया के लिए प्रयोग न करने योग्य, पहुंच से दूर और अवहनीय हो जाते हैं।
अब भारत ने यह दिखाया है कि एक उभरता देश भी विकासशील दुनिया को प्रभावित करने वाली बीमारियों के लिए दवाएं एवं वैक्सीन विकसित करने वाले महत्वपूर्ण बायोफार्मा क्षेत्र में विश्वस्तरीय दावेदार हो सकता है। कुछ शर्तें पूरी कर लेने पर अन्य देश भी ऐसा कर सकते हैं।
यद्यपि अब तक, भारत का बायोफार्मा क्षेत्र बुनियादी अनुसंधान एवं विनिर्माण में मजबूत होने के बावजूद नवाचार के लिए इसकी क्षमताएं कम थीं। इसने कई तरह की चुनौतियों का सामना किया।
सर्वप्रथम तो, निजी क्षेत्र नये उत्पादों को बनाने और बाजार में परीक्षण करने की लंबी और थकाऊ प्रक्रिया का जोखिम लेने के लिए इच्छुक नहीं था।
दूसरे, वैज्ञानिक खोजों को वास्तविक दुनिया के समाधानों में बदलने के लिए सार्वजनिक वस्तुओं में बहुत थोड़ा निवेश था।
और तीसरे, चिकनगुनिया एवं डेंग्यू, जिनके लिए वैक्सीन नहीं है, जैसी अमूमन गरीब वर्ग को होने वाली बीमारियों में होने वाले निवेश पर रिटर्न निजी अनुसंधान एवं विकास को प्रोत्साहित करने के लिए पर्याप्त नहीं था।
मजबूत सरकारी समर्थन
परियोजना ने एक नये उत्पाद को परीक्षण से बाजार तक ले जाने के लिए आवश्यक ‘ट्रैक्स’ और ’ट्रेन्स’ दोनों के विकास का समर्थन किया। उदाहरण के लिए, इसने जैवप्रौद्योगिकी इकोसिस्टम को सुधआने के लिए आवश्यक ‘ट्रैक्स’ या बुनियादी ढांचा तैयार करने में मदद की। इसमें क्लीनिकल परीक्षण स्थल की स्थापना और प्रयोगशालाओं एवं विनिर्माण सुविधाओं को अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त मानकों के स्तर तक उन्नत करना शामिल है।
इसने नयी वैक्सीन, बायोसिमिलर्स एवं चिकित्सा उपकरण विकसित करने की इच्छुक कंपनियों को अनुदान उपलब्ध कराकर इन ‘ट्रैक्स’ पर चलने के लिए ’ट्रेन्स‘ का भी समर्थन किया।
इस पहल ने कई सफलताएं हासिल कीं :
- कोविड-19 : भारत और विदेशों की जैवप्रौद्योगिकी कंपनियां अपननी कोविड-19 वैक्सीनों का परीक्षण करने के लिए परियोजना के तहत सृजित क्लीनिकल ट्रायल नेटवर्क का उपयोग करने में सक्षम थीं। उन्होंने वायरस अध्ययन (जैसे इंटेरेक्टिव रिसर्च स्कूल फॉर हेल्थ अफेयर्स (आईआरएसएचए), पुणे) के लिए प्रमाणीकृत प्रयोगशालाओं और विभिन्न वैक्सीनों (जैसे शिल्पा मेडिकेयर) के लिए सक्रिय ड्रग घटक उत्पादित करने के लिए प्रमाणीकृत विनिर्माण सुविधाओं का भी उपयोग किया। पहले चरण के क्लीनिकल परीक्षणों के दौरान परियोजना द्वारा समर्थित कोविड-19 की दो वैक्सीनें, कोवैक्सीन और कोर्बेवेक्स को आपात मंजूरी मिली। इसके अलावा, एनबीएम ने परीक्षण किट, वेन्टिलेटर और कोविड-19 वैक्सीनों के लिए 3.3 करोड़ डॉलर की प्रतिबद्धता जतायी।
- चिकनगुनिया : एनबीएम ने स्थानिक मच्छर जनित एक बीमारी, चिकनगुनिया, जिसके लिए कोई वैक्सीन उपलब्ध नहीं थी, के लिए एक नयी वैक्सीन विकसित करने में हैदराबाद स्थित कंपनीय, भारत बायोटेक का समर्थन किया। नयी वैक्सीन फिलहाल क्लीनिकल परीक्षण के दौर में है।
- निमोनिया : घरेलू तौर पर विकसित एक अन्य वैक्सीन तेलंगाना स्थित कंपनी टर्जीन द्वारा विकसित 15-वैलेंट निमोनिया वैक्सीन बच्चों पर परीक्षण में प्रभावी साबित हुई और इसे नियामकों से बाजार अधिकार प्राप्त हुआ। इससे पहले, भारत मुख्य रूप से 10-वैलेंट न्यूमोकोकल वैक्सीन पर निर्भर था। नयी वैक्सीन बच्चों को निमोनिया पैदा करने वाले 15 प्रकार के बैक्टीरिया से बचाती है। यह न केवल बेहतर सुरक्षा देती है, बल्कि इससे 56 करोड़ डॉलर की भी बचत होती है, क्योंकि 45 डॉलर प्रति वैक्सीन की यह विदेशी वैक्सीन अत्यधिक महंगी है और कई भारतीयों की पहुंच से भी बाहर है।
- मधुमेह : भारत में मधुमेह के व्यापक प्रसार को देखते हुए, एनबीएम इस रोग के लिए एक जेनरिक दवा के विकास का भी समर्थन कर रहा है। नयी दवा से इसके उपचार का खर्च औसतन 90 डॉलर प्रति माह से घटकर 29 डॉलर प्रति माह तक आने का अनुमान है जिससे सालाना लगभग 63 करोड़ डॉलर की बचत होगी।
- नैदानिक चिकित्सा उपकरण : एनबीएम लागत प्रभावी नैदानिक उपकरणों के विकास का समर्थन कर रहा है जो भारत की विशाल जनसंख्या के स्वास्थ्य का ध्यान रखने के लिए आवश्यक हैं। उदाहरण के लिए, एमआरआई स्कैनर की कमी को दूर करने के लिए एनबीएम भारत के प्रथम स्वदेश निर्मित और किफायती उपकरण के विकास के लिए बेंगलुर स्थित कंपनी वोक्सेलग्रिड्स का समर्थन कर रहा है। स्वदेशी रूप से विकसित ये उपकरण नैदानिक सेवाओं तक पहुंच का विस्तार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे क्योंकि अनुमान है कि भारत को कम से कम 7,000 एमआरआई स्कैनर की आवश्यकता है परंतु इसके केवल आधे की उपलब्धता है।
ये सफलताएं संयोग से नहीं मिली हैं। इसके बजाय, यह सफलताएं एक स्वदेशी बायोफार्मा क्षेत्र, जो बाजार में नये उत्पाद लाने के लिए, बुनियादी अनुसंधान से प्रमाणीकरण तक सभी प्रकार की गतिविधियों में नवाचार कर सके, को विकसित करने में सरकार की मजबूत भागीदारी के कारण मिलीं।
शुरुआत में, एनबीएम की संस्थागत व्यवस्था ने नौकरशाहों और निजी क्षेत्र की भूमिकाओं के बीच एक स्वस्थ संतुलन बनाया, जबकि निजी क्षेत्र नवाचार के लिए प्रोत्साहन प्रदान किया। दूसरे, इसने क्षेत्रों के बजाय गतिविधियों को लक्षित किया, सार्वजनिक स्वास्थ्य आवश्यकताओं पर आधारित और निजी क्षेत्र, अकादमिक जगत एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य अधिकारियों द्वारा बाजार में पहचानी गयी विशिष्ट कमियों से सूचित थे। तीसरे, अदान वितरण स्पष्ट बेंचमार्क से बंधे थे और इसमें सनसेट प्रावधान अंतर्निहित थे ताकि खोज प्रक्रिया में विफल निवेश अनावश्यक रूप से लंबे समय तक न चले।
भारत के लिए सबक स्पष्ट हैं : जब सरकारें नवाचार एवं सहयोग के लिए एक सक्षम वातावरण बनाती हैं तो कड़ी स्थानिक चुनौतियों से भी प्रभावी, जिंदगी बदल देने वाले समाधानों के जरिये निपटा जा सकता है। अन्य विकासशील देश भी एक जीवंत बायोफार्मा क्षेत्र के लिए उपयुक्त संस्थागत ढांचा बनाकर अपनी क्षमताओं को वास्तविकता में बदल सकते हैं।
बायोटेक्नोलॉजी इंडस्ट्री रिसर्च एसिस्टेंस काउंसिल की डॉ. शिखा मलिक को इस ब्लॉग में उनकी बहुमूल्य अंतर्दृष्टि और योगदान के लिए धन्यवाद।
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